उपन्यास >> ऋणजल धनजल ऋणजल धनजलफणीश्वरनाथ रेणु
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"फणीश्वरनाथ रेणु : प्राकृतिक आपदाओं की अवर्णनीय पीड़ा को अद्वितीय संवेदनशीलता से अंकित करने वाले।"
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रकाशकीय
यह सच, एक दुखद सच है कि रेणु जी की भौतिक काया निःशेष हो चुकी है, लेकिन साथ-ही-साथ, यह भी सच है कि रेणु जी हमारे बीच आज भी मौजूद हैं—अपने सम्मोहक व्यक्तित्व से जुड़ी स्मृतियों के रूप में, जो समय-असमय हमारे मन को झकझोरती और भारी कर जाती हैं; तथा उन अक्षर-कृतियों के रूप में, जो हमारे लिए और आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रेरणा का अक्षय स्रोत बनी रहेंगी।
रेणु जी की यह कृति—ऋणजल धनजल—कई दृष्टियों से ऐतिहासिक महत्त्व रखती है। पहली और मुख्य बात, कि बाढ़ और सूखे की दो अभूतपूर्व दुर्घटनाओं का यह ऐतिहासिक दस्तावेज है, और दूसरी, कि इसके प्रकाशन की पूरी रूपरेखा तय करने के साथ-साथ इसका नामकरण तक उन्होंने स्वयं किया था, और इसके लिए पन्द्रह—बीस पृष्ठों की एक भूमिका लिख चुकने की सूचना भी उन्होंने दी थी । किन्तु, दुर्योगवश, वह महत्त्वपूर्ण भूमिका हमें उपलब्ध नहीं हुई और उसी बीच सहसा उन्होंने हमेशा-हमेशा के लिए आँखे मूँद ली।
रेणु जी के जीवनकाल में यह पुस्तक प्रकाशित नहीं हो सकी, इसकी कचोट हमें हमेशा रहेगी। और, अब यह पुस्तक उनकी उस भूमिका के बगैर ही प्रकाशित हो रही है, यह दुहरा दुख भी उस कचोट में शामिल हो गया है।
यह एक मूल्यवान धरोहर थी रेणु जी की, जिसे अब हम पाठकों के हाथ में दे रहे हैं। रेणु जी के प्रति हमारी यह मूक श्रद्धांजलि है।
रेणु जी की यह कृति—ऋणजल धनजल—कई दृष्टियों से ऐतिहासिक महत्त्व रखती है। पहली और मुख्य बात, कि बाढ़ और सूखे की दो अभूतपूर्व दुर्घटनाओं का यह ऐतिहासिक दस्तावेज है, और दूसरी, कि इसके प्रकाशन की पूरी रूपरेखा तय करने के साथ-साथ इसका नामकरण तक उन्होंने स्वयं किया था, और इसके लिए पन्द्रह—बीस पृष्ठों की एक भूमिका लिख चुकने की सूचना भी उन्होंने दी थी । किन्तु, दुर्योगवश, वह महत्त्वपूर्ण भूमिका हमें उपलब्ध नहीं हुई और उसी बीच सहसा उन्होंने हमेशा-हमेशा के लिए आँखे मूँद ली।
रेणु जी के जीवनकाल में यह पुस्तक प्रकाशित नहीं हो सकी, इसकी कचोट हमें हमेशा रहेगी। और, अब यह पुस्तक उनकी उस भूमिका के बगैर ही प्रकाशित हो रही है, यह दुहरा दुख भी उस कचोट में शामिल हो गया है।
यह एक मूल्यवान धरोहर थी रेणु जी की, जिसे अब हम पाठकों के हाथ में दे रहे हैं। रेणु जी के प्रति हमारी यह मूक श्रद्धांजलि है।
कवि की यात्राएँ
रघुवीर सहाय
फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ उन गिने-चुने लोगों में से थे जिनसे एक बार मिलने के बाद फिर उनके बारे में और कुछ जानना रह नहीं जाता। प्रेम से भरा व्यक्तित्व कभी रहस्यमय बना रह सकता है ? उससे तो हर बार मिलने पर ऐसा लगता है कि जहाँ पिछली बार छोड़ा था उससे आगे शुरू कर रहे हैं—ऐसा नहीं कि हर बार नए शिरे से जाना पड़ रहा है।
व्यक्ति सम्पूर्ण कहाँ होता है, केवल कम या ज्यादा सम्पूर्ण होता है। रेणु कम-से-कम इतने सम्पूर्ण थे कि हर परिवेश और सन्दर्भ में उनके मौलिक लक्षण एक ही रहते थे, रागानुराग के आरोह-अवरोह से उनका ठाठ नहीं बिगड़ता था। वह जैसा सोचते थे वैसा बोलते थे और जैसा बोलते थे वैसा लिखते थे—और फिर जब उसको पढ़ो तो लगता था कि रेणु बोल रहे हैं।
रेणु के लेखन की इस विशेषता की ओर कम आलोचकों का ध्यान गया है, यद्यपि यह इतनी स्पष्ट है कि अत्यन्त स्पष्ट होने के कारण ही यह विशेषता, विशेषता न मानी गई हो।
जैसे हिंदी आलोचना-जगत् का स्वभाव रहा है, विलक्षणता और विचित्रता खोज कर उससे चौंकाने को आतुर सहृदयों ने रेणु की शैली को आंचलिक कहकर अपने को नागर जताने का प्रयत्न किया था। पर वह उनके अपने व्यक्तित्व की, न आंचलिक, न नागर, बल्कि विश्वसनीय अभिव्यक्त है। आंचलिक-जैसी कई शैली सा विषयवस्तु भी होती है, यह मानना राजनैतिक केन्द्रीकरण के वज़न पर किसी सार्वदेशिक साहित्य के दम्भ की प्रतिष्ठा करना है ।
रेणु ने दूसरों में ऐसे किसी दम्भ को कभी इतना महत्त्वपूर्ण नहीं पाया कि या तो जवाब में कोई आंचलिक मुद्रा अपनाते या तथाकथित महानगरी साहित्य की नक़ल करने लगते। उनके लिए लोग ही सत्य थे-वहाँ तक सत्य जहाँ तक वह उन्हें जानते थे और उनसे एक हो सकते थे-चाहे वे कहीं के रहनेवाले हों। यह आस्था उनमें आजीवन बनी रही। मृत्यु से कुछ दिन पहले 15 और 16 मार्च को अस्पताल में दो बार उनसे लम्बी बातचीत हुई थीः तब वह कह रहे थे कि लोकसभा-चुनाव में जनता पार्टी जीत कर आ गई तो हमलोगों को और अधिक काम करना पड़ जाएगा-अन्याय के प्रति सतत असहमति का और समाजवाद के विचार के विकास का काम आज (आपात-काल) से भी तब अधिक आवश्यक हो जाएगा। उन्हें बहुत सी बातें, बहुत-से लोग याद आ रहे थे। यह कोई नई बात न थी, और न यही कहा जा सकता है कि इस प्रकार के संस्मरणों पर किसी आगामी आशंका की छाया मँडरा रही थी। नहीं, वह वैसे ही सहज भाव से अपनी जेल-यात्राएँ याद कर रहे थे जैसा मैंने उनके मुख पर 1974 में देखा था। उन्होंने हँसकर कहा, एक ज़माने में क्रान्तिकारी जेल जाता था, तपेदिक का मरीज़ होता था और प्रेम करता था। मैंने इससे भी अधिक किया। ये तीनों करके विवाह भी किया। फिर ललक कर बोलेः दिनमान लिए एक धारावाहिक संस्मरण-माला लिखूगाँ- ‘मेरी प्रणय-कहानी’। वह आपरेशन से हमेशा के लिए अच्छे हो जाने को आतुर थे और उसके बाद यही संस्मरण लिखना नहीं, 1974 की जेलयात्रा में ‘मैला आँचल’ और ‘परिकथा’ के अपने पात्रों से कैसे दोबारा भेंट हुई, इसकी कहानी लिखने के पुराने वायदे को पूरा करना चाह रहे थे । उनके भीतर लोग-ही-लोग जाग रहे थे, अपनी युवावस्था के प्रवर्तक अनुभव-प्रेमविवाह की किचिंत् विनोदभरी स्मृति से मग्न, परन्तु आत्म-केन्द्रित नहीं ।
उन्हें अपने भीतर की करूणा और न्यायप्रियता पर सहज विश्वास था कि वह—कवि की एकमात्र पूँजी—अपने-आपको सूद-दर-सूद बढ़ाती रहेगी। न कोई शास्त्र उनका सम्बल था न कोई मतवाद, यहाँ तक कि वह भक्तिभाव भी नहीं जो उन्होंने परम्परा से दान में पाया था; बल्कि उसको तो झकझोरकर ही वह कुछ लिख पाते थे, या कहें कि उसको झकझोरने के लिए ही वह लिखते थे ।
उनके लेखन में अपूर्व वर्णनशक्ति है और वह सिवाय उतनी ही अपूर्व पर्यवेक्षण-शक्ति के और कहाँ से आ सकती है ? वह चारों ओर जो कुछ देखते हैं उसके ब्यौरे उनके लिए रमणीय होते हैं पर लिखने के लिए स्मृति में रखने योग्य ब्यौरों का चुनाव करते समय वे निर्ममता से बहुत-से ब्यौरों को रद्द करते जाते होंगे, यह उनके अद्वितीय चयन से ही प्रकट है । यह दुर्लभ गुण उन्हें उन तमाम हिन्दी-लेखकों से ऊँचे स्थान पर ला बिठाता है जो ब्यौरों को घटिया लोगों का रोज़गार और उपदेश को, अथवा दार्शनिकता को, श्रेष्ठ साहित्यिक कर्म मानते हैं। रेणु का देखना एक ही साथ बाहर और भीतर दोनों ओर होता है। यही उनके ब्यौरों को अर्थ दे जाता हैः अलग से अर्थ गढ़कर बनाने की ज़रूरत तो उन्हें होती ही नहीं, सीधे शब्दों से उलटा करके बताना भी उनकी शैली में अनावश्यक हो जाता है।
इस तरह रेणु अपनी किस्म के एक सन्देशवाहक हैं। वह जिसका सँदेशा लाते हैं उसके-जैसे हुए बिना ला नहीं सकते और जब वह उसके-जैसे होने की कोशिश करते हैं, यानी जहाँ उन्हें कोशिश करनी पड़ती है, तो वह उस कोशिश को छिपाते नहीं-जैसे सितारवादक सितार की और उसकी सुन्दरियों पर चलनेवाले हाथ को नहीं छिपाता, जबकि हाथ नहीं स्वर ही उसका प्रेय है (यह झलक सूखा-वृत्तान्त में मिलेगी) । उनमें अपनी रचना-प्रक्रिया के प्रति यह विश्लेषणात्मक रूझान आधुनिक कवि का है जो अपने परिवेश से सम्बन्ध इस स्वीकार के साथ बनाता है कोई बना-बनाया सम्बन्ध नहीं है, न किसी बने-बनाए सम्बन्ध की घोषणा कर देने से ही वह बन जाएगा। जहाँ परिवेश से यह सम्बन्ध अपेक्षया कम प्रयत्नसाध्य होता है वहाँ वह अकारण आधुनिकता का दावा करने के लिए उसका विस्फीत प्रदर्शन नहीं करते। 1975 के भय और आतंक में पटना की बाढ़ में अपने घर में नज़रबन्द रेणु को सूखा क्षेत्र में जाने की तरह का और नए चेहरों में अपना चेहरा पहचानने का प्रयत्न नहीं करना पड़ता, पर वह जहाँ हैं वहीं से जाते बहुत दूर-दूर तक हैं। मनुष्य, पशु-पक्षी, जो भी चलता दिखता है उसके साथ-साथ जाते हैं। उनमें बिना अपना चेहरा पहचाने उनका लेखक पूर्ण नहीं होता चाहे वह घर से बाहर निकले हों और अजनबियों के बीच न गए हों।
रेणु के जो दो वृत्तान्त यहाँ प्रकाशित हैं, एक प्रकार से उनके रचना-जगत् की एक अद्भुत घटना के प्रमाण हैं। एक में जहाँ उन्हें देश पार कर कहीं जाना पड़ा है वह काल में अपने भीतर गए बिना अपूर्ण रहते हैं, दूसरे में जहाँ देश का संक्रमण नहीं होता वहाँ काल में उनकी यात्रा अनिवार्य हो गई है। तभी न कहा है कि रेणु एक सम्पूर्ण व्यक्ति हैं।
दोनों वृत्तान्तों में नौ वर्ष का अन्तर है (इस-बीच उन्होंने ‘दिनमान’ में एक और संस्मरणमाला, नेपाल-क्रान्ति के अपने अनुभवों को लेकर प्रकाशित की थी)। लेखक के मन में अपने कवि-मानस की निरन्तरता की इच्छा का अनुमान हम इसी से कर सकते हैं कि उन्होंने यह संकलन तैयार करते हुए ऊपर से देखने पर दैवी परन्तु, वास्तव में मानवकृत संकटों के अपने नौ वर्ष पहले और बाद के अनुभवों को अन्तर्युक्त माना। रेणु ने अकाल-जैसे सामाजिक अनुभव में बैठ कर 1966 के पहले भी कुछ-न-कुछ लिखा था, किन्तु अवश्य ही निरी किताब बनाना उनका उद्देश्य न था। किसी ईमानदार लेखक के लिए किताब की संरचना भी उतनी ही सृजनात्मक होती है जितनी उसमें या अन्यत्र संकलित उसकी रचनाएँ हैं और ‘ऋणजल’ और ‘धनजल’ को एक साथ रखने में निश्चय ही रेणु का कोई रचनात्मक प्रयोजन रहा होगा—निरा शब्द-चमत्कार नहीं ।
रेणु इस संकलन की एक भूमिका लिख रहे थे या लिख चुके थे। गाँव से फरवरी ’76 के एक पत्र में उन्होंने प्रकाशक को बताया था कि पन्द्रह-बीस पृष्ठ की वह भूमिका रवाना की जा रही है, ‘‘जिस दिन भूमिका लिखने बैठा, चास नाला खदान की अभूतपूर्व दुर्घटना घट गई... भूमिका में 15 जनवरी ’34 के भूकम्प से लेकर अब तक के दैवी प्रकोपों के (जिन्हें याद करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं) छुटपुट संस्मरण हैं...मैंने अपनी इन रचनाओं को ‘जुर्नल’ कहा है।’’ वह भूमिका कभी प्राप्त नहीं हुई। इससे हम रेणु के रचना-प्रक्रिया-जगत् में बैठ कर अनुमान ही लगा सकते हैं कि किस कलात्मक कारण से उन्होंने इस पुस्तक की सृष्टि की होगी। वह कारण बहुत करके यही रहा होगा कि इन दो वृत्तान्तों में वह रचनात्मक अन्तर्सम्बन्ध देख पाए थे। इन लेखों में कहानी, कविता या नाटक उस रूप में विद्यमान नहीं हैं और जिसमें साहित्यिक व्याख्याता उन्हें देखने के आदी हो चुके हैं पर इनमें ये सब हैं और यह प्रमाण भी है कि कोई रपट भी उतनी सृजनात्मक हो सकती है जितनी वह रचना, जो रपट नहीं है—बशर्ते कि लेखक अपने व्यक्तित्व के प्रति सजग हो।
व्यक्ति सम्पूर्ण कहाँ होता है, केवल कम या ज्यादा सम्पूर्ण होता है। रेणु कम-से-कम इतने सम्पूर्ण थे कि हर परिवेश और सन्दर्भ में उनके मौलिक लक्षण एक ही रहते थे, रागानुराग के आरोह-अवरोह से उनका ठाठ नहीं बिगड़ता था। वह जैसा सोचते थे वैसा बोलते थे और जैसा बोलते थे वैसा लिखते थे—और फिर जब उसको पढ़ो तो लगता था कि रेणु बोल रहे हैं।
रेणु के लेखन की इस विशेषता की ओर कम आलोचकों का ध्यान गया है, यद्यपि यह इतनी स्पष्ट है कि अत्यन्त स्पष्ट होने के कारण ही यह विशेषता, विशेषता न मानी गई हो।
जैसे हिंदी आलोचना-जगत् का स्वभाव रहा है, विलक्षणता और विचित्रता खोज कर उससे चौंकाने को आतुर सहृदयों ने रेणु की शैली को आंचलिक कहकर अपने को नागर जताने का प्रयत्न किया था। पर वह उनके अपने व्यक्तित्व की, न आंचलिक, न नागर, बल्कि विश्वसनीय अभिव्यक्त है। आंचलिक-जैसी कई शैली सा विषयवस्तु भी होती है, यह मानना राजनैतिक केन्द्रीकरण के वज़न पर किसी सार्वदेशिक साहित्य के दम्भ की प्रतिष्ठा करना है ।
रेणु ने दूसरों में ऐसे किसी दम्भ को कभी इतना महत्त्वपूर्ण नहीं पाया कि या तो जवाब में कोई आंचलिक मुद्रा अपनाते या तथाकथित महानगरी साहित्य की नक़ल करने लगते। उनके लिए लोग ही सत्य थे-वहाँ तक सत्य जहाँ तक वह उन्हें जानते थे और उनसे एक हो सकते थे-चाहे वे कहीं के रहनेवाले हों। यह आस्था उनमें आजीवन बनी रही। मृत्यु से कुछ दिन पहले 15 और 16 मार्च को अस्पताल में दो बार उनसे लम्बी बातचीत हुई थीः तब वह कह रहे थे कि लोकसभा-चुनाव में जनता पार्टी जीत कर आ गई तो हमलोगों को और अधिक काम करना पड़ जाएगा-अन्याय के प्रति सतत असहमति का और समाजवाद के विचार के विकास का काम आज (आपात-काल) से भी तब अधिक आवश्यक हो जाएगा। उन्हें बहुत सी बातें, बहुत-से लोग याद आ रहे थे। यह कोई नई बात न थी, और न यही कहा जा सकता है कि इस प्रकार के संस्मरणों पर किसी आगामी आशंका की छाया मँडरा रही थी। नहीं, वह वैसे ही सहज भाव से अपनी जेल-यात्राएँ याद कर रहे थे जैसा मैंने उनके मुख पर 1974 में देखा था। उन्होंने हँसकर कहा, एक ज़माने में क्रान्तिकारी जेल जाता था, तपेदिक का मरीज़ होता था और प्रेम करता था। मैंने इससे भी अधिक किया। ये तीनों करके विवाह भी किया। फिर ललक कर बोलेः दिनमान लिए एक धारावाहिक संस्मरण-माला लिखूगाँ- ‘मेरी प्रणय-कहानी’। वह आपरेशन से हमेशा के लिए अच्छे हो जाने को आतुर थे और उसके बाद यही संस्मरण लिखना नहीं, 1974 की जेलयात्रा में ‘मैला आँचल’ और ‘परिकथा’ के अपने पात्रों से कैसे दोबारा भेंट हुई, इसकी कहानी लिखने के पुराने वायदे को पूरा करना चाह रहे थे । उनके भीतर लोग-ही-लोग जाग रहे थे, अपनी युवावस्था के प्रवर्तक अनुभव-प्रेमविवाह की किचिंत् विनोदभरी स्मृति से मग्न, परन्तु आत्म-केन्द्रित नहीं ।
उन्हें अपने भीतर की करूणा और न्यायप्रियता पर सहज विश्वास था कि वह—कवि की एकमात्र पूँजी—अपने-आपको सूद-दर-सूद बढ़ाती रहेगी। न कोई शास्त्र उनका सम्बल था न कोई मतवाद, यहाँ तक कि वह भक्तिभाव भी नहीं जो उन्होंने परम्परा से दान में पाया था; बल्कि उसको तो झकझोरकर ही वह कुछ लिख पाते थे, या कहें कि उसको झकझोरने के लिए ही वह लिखते थे ।
उनके लेखन में अपूर्व वर्णनशक्ति है और वह सिवाय उतनी ही अपूर्व पर्यवेक्षण-शक्ति के और कहाँ से आ सकती है ? वह चारों ओर जो कुछ देखते हैं उसके ब्यौरे उनके लिए रमणीय होते हैं पर लिखने के लिए स्मृति में रखने योग्य ब्यौरों का चुनाव करते समय वे निर्ममता से बहुत-से ब्यौरों को रद्द करते जाते होंगे, यह उनके अद्वितीय चयन से ही प्रकट है । यह दुर्लभ गुण उन्हें उन तमाम हिन्दी-लेखकों से ऊँचे स्थान पर ला बिठाता है जो ब्यौरों को घटिया लोगों का रोज़गार और उपदेश को, अथवा दार्शनिकता को, श्रेष्ठ साहित्यिक कर्म मानते हैं। रेणु का देखना एक ही साथ बाहर और भीतर दोनों ओर होता है। यही उनके ब्यौरों को अर्थ दे जाता हैः अलग से अर्थ गढ़कर बनाने की ज़रूरत तो उन्हें होती ही नहीं, सीधे शब्दों से उलटा करके बताना भी उनकी शैली में अनावश्यक हो जाता है।
इस तरह रेणु अपनी किस्म के एक सन्देशवाहक हैं। वह जिसका सँदेशा लाते हैं उसके-जैसे हुए बिना ला नहीं सकते और जब वह उसके-जैसे होने की कोशिश करते हैं, यानी जहाँ उन्हें कोशिश करनी पड़ती है, तो वह उस कोशिश को छिपाते नहीं-जैसे सितारवादक सितार की और उसकी सुन्दरियों पर चलनेवाले हाथ को नहीं छिपाता, जबकि हाथ नहीं स्वर ही उसका प्रेय है (यह झलक सूखा-वृत्तान्त में मिलेगी) । उनमें अपनी रचना-प्रक्रिया के प्रति यह विश्लेषणात्मक रूझान आधुनिक कवि का है जो अपने परिवेश से सम्बन्ध इस स्वीकार के साथ बनाता है कोई बना-बनाया सम्बन्ध नहीं है, न किसी बने-बनाए सम्बन्ध की घोषणा कर देने से ही वह बन जाएगा। जहाँ परिवेश से यह सम्बन्ध अपेक्षया कम प्रयत्नसाध्य होता है वहाँ वह अकारण आधुनिकता का दावा करने के लिए उसका विस्फीत प्रदर्शन नहीं करते। 1975 के भय और आतंक में पटना की बाढ़ में अपने घर में नज़रबन्द रेणु को सूखा क्षेत्र में जाने की तरह का और नए चेहरों में अपना चेहरा पहचानने का प्रयत्न नहीं करना पड़ता, पर वह जहाँ हैं वहीं से जाते बहुत दूर-दूर तक हैं। मनुष्य, पशु-पक्षी, जो भी चलता दिखता है उसके साथ-साथ जाते हैं। उनमें बिना अपना चेहरा पहचाने उनका लेखक पूर्ण नहीं होता चाहे वह घर से बाहर निकले हों और अजनबियों के बीच न गए हों।
रेणु के जो दो वृत्तान्त यहाँ प्रकाशित हैं, एक प्रकार से उनके रचना-जगत् की एक अद्भुत घटना के प्रमाण हैं। एक में जहाँ उन्हें देश पार कर कहीं जाना पड़ा है वह काल में अपने भीतर गए बिना अपूर्ण रहते हैं, दूसरे में जहाँ देश का संक्रमण नहीं होता वहाँ काल में उनकी यात्रा अनिवार्य हो गई है। तभी न कहा है कि रेणु एक सम्पूर्ण व्यक्ति हैं।
दोनों वृत्तान्तों में नौ वर्ष का अन्तर है (इस-बीच उन्होंने ‘दिनमान’ में एक और संस्मरणमाला, नेपाल-क्रान्ति के अपने अनुभवों को लेकर प्रकाशित की थी)। लेखक के मन में अपने कवि-मानस की निरन्तरता की इच्छा का अनुमान हम इसी से कर सकते हैं कि उन्होंने यह संकलन तैयार करते हुए ऊपर से देखने पर दैवी परन्तु, वास्तव में मानवकृत संकटों के अपने नौ वर्ष पहले और बाद के अनुभवों को अन्तर्युक्त माना। रेणु ने अकाल-जैसे सामाजिक अनुभव में बैठ कर 1966 के पहले भी कुछ-न-कुछ लिखा था, किन्तु अवश्य ही निरी किताब बनाना उनका उद्देश्य न था। किसी ईमानदार लेखक के लिए किताब की संरचना भी उतनी ही सृजनात्मक होती है जितनी उसमें या अन्यत्र संकलित उसकी रचनाएँ हैं और ‘ऋणजल’ और ‘धनजल’ को एक साथ रखने में निश्चय ही रेणु का कोई रचनात्मक प्रयोजन रहा होगा—निरा शब्द-चमत्कार नहीं ।
रेणु इस संकलन की एक भूमिका लिख रहे थे या लिख चुके थे। गाँव से फरवरी ’76 के एक पत्र में उन्होंने प्रकाशक को बताया था कि पन्द्रह-बीस पृष्ठ की वह भूमिका रवाना की जा रही है, ‘‘जिस दिन भूमिका लिखने बैठा, चास नाला खदान की अभूतपूर्व दुर्घटना घट गई... भूमिका में 15 जनवरी ’34 के भूकम्प से लेकर अब तक के दैवी प्रकोपों के (जिन्हें याद करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं) छुटपुट संस्मरण हैं...मैंने अपनी इन रचनाओं को ‘जुर्नल’ कहा है।’’ वह भूमिका कभी प्राप्त नहीं हुई। इससे हम रेणु के रचना-प्रक्रिया-जगत् में बैठ कर अनुमान ही लगा सकते हैं कि किस कलात्मक कारण से उन्होंने इस पुस्तक की सृष्टि की होगी। वह कारण बहुत करके यही रहा होगा कि इन दो वृत्तान्तों में वह रचनात्मक अन्तर्सम्बन्ध देख पाए थे। इन लेखों में कहानी, कविता या नाटक उस रूप में विद्यमान नहीं हैं और जिसमें साहित्यिक व्याख्याता उन्हें देखने के आदी हो चुके हैं पर इनमें ये सब हैं और यह प्रमाण भी है कि कोई रपट भी उतनी सृजनात्मक हो सकती है जितनी वह रचना, जो रपट नहीं है—बशर्ते कि लेखक अपने व्यक्तित्व के प्रति सजग हो।
समग्र मानवीय दृष्टि
निर्मल वर्मा
मुझे याद है। वह एक लम्बा जुलूस था, जो इमरजेंसी से कुछ महीने पहले दिल्ली में निकाला गया था। जयप्रकाश जी सबसे आगे थे। हज़ारों लोग उनके पीछे उमड़े आ रहे थे। देश के कोने-कोने से लोग जुलूस में शामिल होने आए थे। मैं चलते-चलते अपनी पाँत भूल बैठा और अजनबियों के एक जत्थे में चला आया। साथ चलने वाले सज्जन से पूछा कि वह कहाँ से आए हैं ? ‘बिहार से,’ उन्होंने कहा और तब तुरन्त बिना कुछ सोचे हुए मैं उनसे पूछ बैठा, ‘रेणु जी भी आए हैं ?’ उन्होंने गद्गद् दृष्टि से मुझे देखा। ‘नहीं, वह बीमार हैं। आ नहीं सके। आप उन्हें जानते हैं ?’
मैं चुपचाप उनके साथ चलने लगा। आप उन्हें जानते हैं ?—यह प्रश्न बहुत देर तक मेरे भीतर गूँजता रहा। मैं उनसे पहले दो तीन बार मिला था, पर आज भी मैं आँखें मूँदकर उनका चेहरा –हू-ब-हू याद कर सकता हूँ—उनके लम्बे झूलते बाल, एक संक्षिप्त-सी मुस्कराहट, जो सहज और अभिजात सौजन्य में भीगी रहती थी। कुछ लोगों में एक राजसी, ‘अरिस्टोक्रेटिक’ गरिमा होती है, जिसका ऊँचे या नीचे वर्ग से सम्बन्ध नहीं होता—वह सीधे संस्कारों से सम्बन्ध रखती है। रेणु जी में यह अभिजात भाव एक ‘ग्रेस’ की तरह व्याप्त रहता था। किंतु जिस चीज़ ने सबसे अधिक मुझे अपनी तरफ खींचा वह उनका उच्छल हल्कापन था। वह छोटे-छोटे वाक्यों में संन्यासियों की तरह बोलते थे और फिर शरमाकर हँसने लगते थे। उनका ‘हल्कापन’ कुछ वैसा ही था जिसके बारे में चेखव ने एक बार कहा था, ‘‘कुछ लोग जीवन में बहुत भोगते-सहते हैं—ऐसे आदमी ऊपर से बहुत हल्के और हँसमुख दिखाई देते हैं। वे अपनी पीड़ा दूसरों पर नहीं थोपते, क्योंकि उनकी शालीनता उन्हें अपनी पीड़ा का प्रदर्शन करने से रोकती है।’’
रेणु ऐसे ही ‘शालीन’ व्यक्ति थे। पता नहीं ज़मीन की कौन-सी गहराई से उनका हल्कापन ऊपर आता था। यातना की कितनी परतों को फाड़कर उनकी मुस्कराहट में बिखर जाता था—यह जानने का मौका कभी नहीं मिल सका।
वह अब नहीं हैं, मेरे लिए यह अब भी एक अख़बारी अफवाह है, जिस पर मैं विश्वास नहीं कर पाता। उनकी मृत्यु अभी तक मेरे लिए सत्य नहीं बनी है। मुझे हैरानी होती है कि उनकी बार-बार की बीमारी की ख़बर मुझे इस भयानक ख़बर के लिए तैयार नहीं कर पाई। हम कुछ मित्रों की बीमारी के इतने अभ्यस्त हो जाते हैं जैसे उनकी कुछ जानी-पहचानी आदतों के मृत्यु से उनका सम्बन्ध बिठाना असम्भव और असहनीय जान पड़ता है । मुझे अपना दुख भी असम्भव जान पड़ता है। जिस व्यक्ति को केवल दो-तीन बार देखा था उसके न रहने से मुझे अपनी लिखने की दुनिया इतनी सूनी और सूनसान जान पड़ने लगेगी, मैंने कभी ऐसा नहीं सोचा था ।
अब सोचता हूँ तो समझ में आता है, हमारी चीज़ों को चाहे बहुत कम लोग पढ़ें किन्तु हम लिखते बहुत कम लोगों के लिए हैं । मैं जिन लोगों को ध्यान में रखकर लिखता था उनमें रेणु सबसे प्रमुख थे। मैं हमेशा सोचता था, पता नहीं मेरी यह कहानी, यह लेख, उपन्यास पढ़कर वह क्या सोचेंगे। यह ख़्याल ही मुझे कुछ छद्म और छिछला, कुछ दिखावटी लिखने से बचा लेता था। कुछ लोग हमेशा हम पर सेंसर का काम करते हैं—सत्ता का सेंसर नहीं जिसमें भय और धमकी छिपी रहती है—किन्तु एक ऐसा सेंसर, जो हमारी आत्मा और ‘कांशस’, हमारे रचना-कर्म की नैतिकता के साथ जुड़ा होता है। रेणु जी का होना, उनकी उपस्थिति ही एक अंकुश और वरदान थी। जिस तरह कुछ साधु-संतों के पास बैठकर ही असीम कृतज्ञता का एहसास होता है, हम अपने भीतर धुल जाते हैं, स्वच्छ हो जाते हैं, रेणु जी की मूक उपस्थिति हिन्दी साहित्य में कुछ ऐसी ही पवित्रता का बोध कराती थी ।
वह समकालीन हिन्दी साहित्य के संत लेखक थे।
यहाँ मैं संत शब्द का उसके सबसे मौलिक और प्राथमिक अर्थों में इस्तेमाल कर रहा हूँ—एक ऐसा व्यक्ति जो दुनिया की किसी चीज़ को त्याज्य और घृणास्पद नहीं मानता—हर जीवित तत्त्व में पवित्रता और सौन्दर्य और चमत्कार खोज लेता है—इसीलिए नहीं कि वह इस धरती पर उगनेवाली कुरूपता, अन्याय, अँधेरे और आँसुओं को नहीं देखता, बल्कि इन सबको समेटनेवाली अबाध प्राणवत्ता को पहचानता है; दलदल को कमल से अलग नहीं करता, दोनों के बीच रहस्यमय और अनिवार्य रिश्ते को पहचानता है। सौन्दर्य का असली मतलब मनोहर चीज़ों का रसास्वादन नहीं, बल्कि गहरे अर्थ में चीज़ों के पारस्परिक सार्वभौमिक, दैवी रिश्ते को पहचानना होता है—इसलिए उसमें एक असीम साहस और विवेक और विनम्रता छिपी रहती है। इस अर्थ में हर संत-व्यक्ति अपनी अन्तर्दृष्टि में कवि और हर कवि अपने सृजनात्मक कर्म में संत होता है। रेणु जी का समूचा लेखन इस रिश्ते की पहचान है, इस पहचान की गवाही है और यह गवाही वह सिर्फ़ अपने लेखन में नहीं, ज़िन्दगी के नैतिक फै़सलों, न्याय और अन्याय, सत्ता और स्वतन्त्रता की संघर्ष-भूमि में भी देते हैं ।
रेणु जी की इस पहचान में सौन्दर्य की नैतिकता उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी नैतिक अन्तर्दृष्टि की संवेदना। दोनों के भीतर एक रिश्ता है, जिसके एक छोर पर ‘मैला आँचल’ है, तो दूसरे छोर पर है जयप्रकाश जी की सम्पूर्ण क्रान्ति। दोनों अलग-अलग नहीं है—वे एक ही स्वप्न, एक लालसा, और ‘विजन’ के दो पहलू हैं। एक-दूसरे पर टिके हैं। कलात्मक ‘विजन’ क्रान्ति दोनों की पवित्रता उनकी समग्र दृष्टि में निहित है, सम्पूर्णता की मांग करती हैः एक ऐसी सम्पूर्णता, जो समझौता नहीं करती, भटकती नहीं, सत्ता के टुकड़ों पर या कोरे सिद्धान्तों की आड़ में अपने को दूषित नहीं करती। वह एक ऐसा मूल्य है जो खुली हवा में सांस लेता है और इसलिए अन्तिम रूप से पवित्र और सुन्दर और स्वतन्त्र है ।
यह अकस्मिक नहीं था कि रेणु जी की इस समग्र मानवीय दृष्टि को अनेक जनवादी और प्रगतिवादी आलोचक सन्देह की दृष्टि से देखते थे—कैसा है यह अजीब लेखक, जो गरीबी की यातना के भीतर भी इतना रस, संगीत इतना आनन्द छक सकता है, सूखी-परती ज़मीन के उदास मरूस्थल में, सुरों, रंगों और गंधों की रास लीला देख सकता है। सौन्दर्य को बटोर सकता है, आँसुओं को परख सकता है, किन्तु उसके भीतर से झाँकती धूल-धूसरित मुस्कान को देखना नहीं भूलता—एक सौन्दर्यवादी की तरह नहीं, जो सुन्दरता को अन्य जीवित तत्वों से अलग करके उनका रसास्वादन करता है। रेणु एथीस्ट नहीं थे। किन्तु वह हाय-हाय करते, छाती पीटते प्रगतिशील लोगों के आडम्बर से बहुत दूर थे, जो मनुष्यों की यातना को उसके समूचे जीवन से अलग करके अपने सिद्धान्तों की लेबोरेटरी में एक रसायन की तरह इस्तेमाल करते हैं। कितनी बड़ी विडम्बना थी कि मार्क्सवादी आलोचक, जिन्हें सबसे पहले रेणु जी के महत्त्व को पहचानना था, अपने थोथे नारों में इतना आत्मलिप्त हो गए कि जनवादिता की दुहाई देते हुए सीधे अपनी नाक के नीचे जीवन्त जनवादी लेखक की अवहेलना करते रहे। किन्तु यहाँ मैं ग़लत हूँ। यह विडम्बना नहीं थी। यह एक ऐसी दृष्टि की भयानक परिणति थी जो एक तरफ़ अपने को प्रगतिशील घोषित करता था, दूसरी तरफ़ बिहार के जन-आन्दोलन को फ़ासिस्ट और जयप्रकाश जी को देशद्रोही करार कर सकती थीः वह दृष्टि, जो शब्दों के साथ इतना सिनिकल ढंग से बलात्कार कर सकती है, यदि रेणु जी को प्रतिगामी, सौन्दर्यवादी लेखक प्रमाणित करने की कोशिश करे तो हमें क्षोभ अवश्य हो, आश्चर्य नहीं होना होना चाहिए।
रेणु जी ने बहुत निकट से मनुष्य की पीड़ा, मजबूरी और गरीबी को देखा था, इसलिए वह उसके साथ कोई सैद्धान्तिक खिलवाड़ नहीं कर पाते थे। साहित्य में वह ऐसी उम्र में आए थे जब अनेक लेखक बहुत-सी किताबें लिख चुके होते हैं। वह अपने साथ अनुभवों की पूरी सम्पदा लाए थे। ये अनुभव उनके उपन्यासों में इतने ताज़े और तात्कालिक जान पड़ते हैं कि जैसे उनके पात्रों में मिट्टी को ज़र्रे चिपके हैं, जिन्हें अभी-अभी उन्होंने धरती से निकालकर अपनी कथाओं में पिरोया है। उन्होंने जिस सूक्ष्म संवेदना और गहरे लगाव से बिहार के एक अंचल पूर्णिया की ज़मीन को कुरेदा था, उसके फैलाव को महीन और मांसल छवियों में ध्वनित किया था, उसके लिए गद्य की भाषा को अप्रत्याशित रूप से काव्यात्मक मुहावरे में ढाला था—वह हिन्दी उपन्यास में अभूतपूर्व घटना थी। अभूतपूर्व इस अर्थ में नहीं कि उनसे पूर्व किसी अन्य लेखक ने अपने गाँव या क्षेत्र पर उपन्यास नहीं लिखे थे। अनेक कथाकारों का नाम लिया जा सकता हैं, जिन्होनें उनसे पहले भी आंचलिक उपन्यास लिखे थे। रेणु का स्थान यदि अपने पूर्ववर्ती और समकालीन आंचलिक कथाकारों से अलग और विशिष्ठ है तो वह इसमें है कि आंचलिक उनका सिर्फ़ परिवेश था, उसके भीतर बहती जीवन धारा स्वयं अपने अंचल की सीमाओं का उल्लंघन, करती थी। रेणु का महत्त्व उनकी आंचलिकता में नहीं, आंचलिकता के अतिक्रमण में निहित है। बिहार के एक छोटे भूखंड की हथेली पर उन्होंने समूचे उत्तरी भारत के किसान की नियत रेखा को उजागर किया था। यह रेखा किसान की किस्मत और इतिहास के हस्तक्षेप के बीच गुँथी हुई थी, जहाँ गाँधी जी का सत्याग्रह आन्दोलन, सोशलिस्ट पार्टी के आदर्श, किसान सभाओं की मीटिंगें अलग-अलग धागों से रेणु का संसार बुनती हैं। सैकड़ों पात्र आते हैं, जाते हैं—उनकी गति, उनका ठहराव, उनकी ऊहापोह और आत्मसंघर्ष एक पूरी इमेंज़ हम पर अंकित कर जाता है। सिनेमा के परदे और हम जैसे आइन्स्टाइन की फ़िल्मों में व्यक्ति और समूह, चलती हुई भीड़ में स्तब्ध चेहरे और अनेक का गत्यात्मक द्वन्द्व, हलचल और तनाव देखते हैं; बिलकुल जैसे पूर्णिया के परदे पर उसकी पीठिका में हम भारतवासी ग्रामवासी और इतिहास के बीच मुठभेड़ और टकराव की गड़गड़ाहट सुनते हैं। एक ऐसा क्षण आता है जब पात्र और पीठिका में कोई अन्तर नहीं रहता—दोनों एक दूसरे में इतना गुथ जाते हैं कि मनुष्य, धरती और इतिहास के बीच सीमाएँ धुल सी जाती हैं किन्तु आपसी मुठभेड़ से जो बिजली चमकती है, बिहार के अवसन्न, धूलभरे आकाश में जो चिनगारी कौंधती है, रेणु ने कैमरे की आँखों से उसे अपनी जीवन्त फड़फड़ाती तात्कालिकता में पकड़ने की कोशिश की थी।
मैं चुपचाप उनके साथ चलने लगा। आप उन्हें जानते हैं ?—यह प्रश्न बहुत देर तक मेरे भीतर गूँजता रहा। मैं उनसे पहले दो तीन बार मिला था, पर आज भी मैं आँखें मूँदकर उनका चेहरा –हू-ब-हू याद कर सकता हूँ—उनके लम्बे झूलते बाल, एक संक्षिप्त-सी मुस्कराहट, जो सहज और अभिजात सौजन्य में भीगी रहती थी। कुछ लोगों में एक राजसी, ‘अरिस्टोक्रेटिक’ गरिमा होती है, जिसका ऊँचे या नीचे वर्ग से सम्बन्ध नहीं होता—वह सीधे संस्कारों से सम्बन्ध रखती है। रेणु जी में यह अभिजात भाव एक ‘ग्रेस’ की तरह व्याप्त रहता था। किंतु जिस चीज़ ने सबसे अधिक मुझे अपनी तरफ खींचा वह उनका उच्छल हल्कापन था। वह छोटे-छोटे वाक्यों में संन्यासियों की तरह बोलते थे और फिर शरमाकर हँसने लगते थे। उनका ‘हल्कापन’ कुछ वैसा ही था जिसके बारे में चेखव ने एक बार कहा था, ‘‘कुछ लोग जीवन में बहुत भोगते-सहते हैं—ऐसे आदमी ऊपर से बहुत हल्के और हँसमुख दिखाई देते हैं। वे अपनी पीड़ा दूसरों पर नहीं थोपते, क्योंकि उनकी शालीनता उन्हें अपनी पीड़ा का प्रदर्शन करने से रोकती है।’’
रेणु ऐसे ही ‘शालीन’ व्यक्ति थे। पता नहीं ज़मीन की कौन-सी गहराई से उनका हल्कापन ऊपर आता था। यातना की कितनी परतों को फाड़कर उनकी मुस्कराहट में बिखर जाता था—यह जानने का मौका कभी नहीं मिल सका।
वह अब नहीं हैं, मेरे लिए यह अब भी एक अख़बारी अफवाह है, जिस पर मैं विश्वास नहीं कर पाता। उनकी मृत्यु अभी तक मेरे लिए सत्य नहीं बनी है। मुझे हैरानी होती है कि उनकी बार-बार की बीमारी की ख़बर मुझे इस भयानक ख़बर के लिए तैयार नहीं कर पाई। हम कुछ मित्रों की बीमारी के इतने अभ्यस्त हो जाते हैं जैसे उनकी कुछ जानी-पहचानी आदतों के मृत्यु से उनका सम्बन्ध बिठाना असम्भव और असहनीय जान पड़ता है । मुझे अपना दुख भी असम्भव जान पड़ता है। जिस व्यक्ति को केवल दो-तीन बार देखा था उसके न रहने से मुझे अपनी लिखने की दुनिया इतनी सूनी और सूनसान जान पड़ने लगेगी, मैंने कभी ऐसा नहीं सोचा था ।
अब सोचता हूँ तो समझ में आता है, हमारी चीज़ों को चाहे बहुत कम लोग पढ़ें किन्तु हम लिखते बहुत कम लोगों के लिए हैं । मैं जिन लोगों को ध्यान में रखकर लिखता था उनमें रेणु सबसे प्रमुख थे। मैं हमेशा सोचता था, पता नहीं मेरी यह कहानी, यह लेख, उपन्यास पढ़कर वह क्या सोचेंगे। यह ख़्याल ही मुझे कुछ छद्म और छिछला, कुछ दिखावटी लिखने से बचा लेता था। कुछ लोग हमेशा हम पर सेंसर का काम करते हैं—सत्ता का सेंसर नहीं जिसमें भय और धमकी छिपी रहती है—किन्तु एक ऐसा सेंसर, जो हमारी आत्मा और ‘कांशस’, हमारे रचना-कर्म की नैतिकता के साथ जुड़ा होता है। रेणु जी का होना, उनकी उपस्थिति ही एक अंकुश और वरदान थी। जिस तरह कुछ साधु-संतों के पास बैठकर ही असीम कृतज्ञता का एहसास होता है, हम अपने भीतर धुल जाते हैं, स्वच्छ हो जाते हैं, रेणु जी की मूक उपस्थिति हिन्दी साहित्य में कुछ ऐसी ही पवित्रता का बोध कराती थी ।
वह समकालीन हिन्दी साहित्य के संत लेखक थे।
यहाँ मैं संत शब्द का उसके सबसे मौलिक और प्राथमिक अर्थों में इस्तेमाल कर रहा हूँ—एक ऐसा व्यक्ति जो दुनिया की किसी चीज़ को त्याज्य और घृणास्पद नहीं मानता—हर जीवित तत्त्व में पवित्रता और सौन्दर्य और चमत्कार खोज लेता है—इसीलिए नहीं कि वह इस धरती पर उगनेवाली कुरूपता, अन्याय, अँधेरे और आँसुओं को नहीं देखता, बल्कि इन सबको समेटनेवाली अबाध प्राणवत्ता को पहचानता है; दलदल को कमल से अलग नहीं करता, दोनों के बीच रहस्यमय और अनिवार्य रिश्ते को पहचानता है। सौन्दर्य का असली मतलब मनोहर चीज़ों का रसास्वादन नहीं, बल्कि गहरे अर्थ में चीज़ों के पारस्परिक सार्वभौमिक, दैवी रिश्ते को पहचानना होता है—इसलिए उसमें एक असीम साहस और विवेक और विनम्रता छिपी रहती है। इस अर्थ में हर संत-व्यक्ति अपनी अन्तर्दृष्टि में कवि और हर कवि अपने सृजनात्मक कर्म में संत होता है। रेणु जी का समूचा लेखन इस रिश्ते की पहचान है, इस पहचान की गवाही है और यह गवाही वह सिर्फ़ अपने लेखन में नहीं, ज़िन्दगी के नैतिक फै़सलों, न्याय और अन्याय, सत्ता और स्वतन्त्रता की संघर्ष-भूमि में भी देते हैं ।
रेणु जी की इस पहचान में सौन्दर्य की नैतिकता उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितनी नैतिक अन्तर्दृष्टि की संवेदना। दोनों के भीतर एक रिश्ता है, जिसके एक छोर पर ‘मैला आँचल’ है, तो दूसरे छोर पर है जयप्रकाश जी की सम्पूर्ण क्रान्ति। दोनों अलग-अलग नहीं है—वे एक ही स्वप्न, एक लालसा, और ‘विजन’ के दो पहलू हैं। एक-दूसरे पर टिके हैं। कलात्मक ‘विजन’ क्रान्ति दोनों की पवित्रता उनकी समग्र दृष्टि में निहित है, सम्पूर्णता की मांग करती हैः एक ऐसी सम्पूर्णता, जो समझौता नहीं करती, भटकती नहीं, सत्ता के टुकड़ों पर या कोरे सिद्धान्तों की आड़ में अपने को दूषित नहीं करती। वह एक ऐसा मूल्य है जो खुली हवा में सांस लेता है और इसलिए अन्तिम रूप से पवित्र और सुन्दर और स्वतन्त्र है ।
यह अकस्मिक नहीं था कि रेणु जी की इस समग्र मानवीय दृष्टि को अनेक जनवादी और प्रगतिवादी आलोचक सन्देह की दृष्टि से देखते थे—कैसा है यह अजीब लेखक, जो गरीबी की यातना के भीतर भी इतना रस, संगीत इतना आनन्द छक सकता है, सूखी-परती ज़मीन के उदास मरूस्थल में, सुरों, रंगों और गंधों की रास लीला देख सकता है। सौन्दर्य को बटोर सकता है, आँसुओं को परख सकता है, किन्तु उसके भीतर से झाँकती धूल-धूसरित मुस्कान को देखना नहीं भूलता—एक सौन्दर्यवादी की तरह नहीं, जो सुन्दरता को अन्य जीवित तत्वों से अलग करके उनका रसास्वादन करता है। रेणु एथीस्ट नहीं थे। किन्तु वह हाय-हाय करते, छाती पीटते प्रगतिशील लोगों के आडम्बर से बहुत दूर थे, जो मनुष्यों की यातना को उसके समूचे जीवन से अलग करके अपने सिद्धान्तों की लेबोरेटरी में एक रसायन की तरह इस्तेमाल करते हैं। कितनी बड़ी विडम्बना थी कि मार्क्सवादी आलोचक, जिन्हें सबसे पहले रेणु जी के महत्त्व को पहचानना था, अपने थोथे नारों में इतना आत्मलिप्त हो गए कि जनवादिता की दुहाई देते हुए सीधे अपनी नाक के नीचे जीवन्त जनवादी लेखक की अवहेलना करते रहे। किन्तु यहाँ मैं ग़लत हूँ। यह विडम्बना नहीं थी। यह एक ऐसी दृष्टि की भयानक परिणति थी जो एक तरफ़ अपने को प्रगतिशील घोषित करता था, दूसरी तरफ़ बिहार के जन-आन्दोलन को फ़ासिस्ट और जयप्रकाश जी को देशद्रोही करार कर सकती थीः वह दृष्टि, जो शब्दों के साथ इतना सिनिकल ढंग से बलात्कार कर सकती है, यदि रेणु जी को प्रतिगामी, सौन्दर्यवादी लेखक प्रमाणित करने की कोशिश करे तो हमें क्षोभ अवश्य हो, आश्चर्य नहीं होना होना चाहिए।
रेणु जी ने बहुत निकट से मनुष्य की पीड़ा, मजबूरी और गरीबी को देखा था, इसलिए वह उसके साथ कोई सैद्धान्तिक खिलवाड़ नहीं कर पाते थे। साहित्य में वह ऐसी उम्र में आए थे जब अनेक लेखक बहुत-सी किताबें लिख चुके होते हैं। वह अपने साथ अनुभवों की पूरी सम्पदा लाए थे। ये अनुभव उनके उपन्यासों में इतने ताज़े और तात्कालिक जान पड़ते हैं कि जैसे उनके पात्रों में मिट्टी को ज़र्रे चिपके हैं, जिन्हें अभी-अभी उन्होंने धरती से निकालकर अपनी कथाओं में पिरोया है। उन्होंने जिस सूक्ष्म संवेदना और गहरे लगाव से बिहार के एक अंचल पूर्णिया की ज़मीन को कुरेदा था, उसके फैलाव को महीन और मांसल छवियों में ध्वनित किया था, उसके लिए गद्य की भाषा को अप्रत्याशित रूप से काव्यात्मक मुहावरे में ढाला था—वह हिन्दी उपन्यास में अभूतपूर्व घटना थी। अभूतपूर्व इस अर्थ में नहीं कि उनसे पूर्व किसी अन्य लेखक ने अपने गाँव या क्षेत्र पर उपन्यास नहीं लिखे थे। अनेक कथाकारों का नाम लिया जा सकता हैं, जिन्होनें उनसे पहले भी आंचलिक उपन्यास लिखे थे। रेणु का स्थान यदि अपने पूर्ववर्ती और समकालीन आंचलिक कथाकारों से अलग और विशिष्ठ है तो वह इसमें है कि आंचलिक उनका सिर्फ़ परिवेश था, उसके भीतर बहती जीवन धारा स्वयं अपने अंचल की सीमाओं का उल्लंघन, करती थी। रेणु का महत्त्व उनकी आंचलिकता में नहीं, आंचलिकता के अतिक्रमण में निहित है। बिहार के एक छोटे भूखंड की हथेली पर उन्होंने समूचे उत्तरी भारत के किसान की नियत रेखा को उजागर किया था। यह रेखा किसान की किस्मत और इतिहास के हस्तक्षेप के बीच गुँथी हुई थी, जहाँ गाँधी जी का सत्याग्रह आन्दोलन, सोशलिस्ट पार्टी के आदर्श, किसान सभाओं की मीटिंगें अलग-अलग धागों से रेणु का संसार बुनती हैं। सैकड़ों पात्र आते हैं, जाते हैं—उनकी गति, उनका ठहराव, उनकी ऊहापोह और आत्मसंघर्ष एक पूरी इमेंज़ हम पर अंकित कर जाता है। सिनेमा के परदे और हम जैसे आइन्स्टाइन की फ़िल्मों में व्यक्ति और समूह, चलती हुई भीड़ में स्तब्ध चेहरे और अनेक का गत्यात्मक द्वन्द्व, हलचल और तनाव देखते हैं; बिलकुल जैसे पूर्णिया के परदे पर उसकी पीठिका में हम भारतवासी ग्रामवासी और इतिहास के बीच मुठभेड़ और टकराव की गड़गड़ाहट सुनते हैं। एक ऐसा क्षण आता है जब पात्र और पीठिका में कोई अन्तर नहीं रहता—दोनों एक दूसरे में इतना गुथ जाते हैं कि मनुष्य, धरती और इतिहास के बीच सीमाएँ धुल सी जाती हैं किन्तु आपसी मुठभेड़ से जो बिजली चमकती है, बिहार के अवसन्न, धूलभरे आकाश में जो चिनगारी कौंधती है, रेणु ने कैमरे की आँखों से उसे अपनी जीवन्त फड़फड़ाती तात्कालिकता में पकड़ने की कोशिश की थी।
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